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Sunday, June 19, 2011

हम वर्चुअल दुनिया में जीना क्यों पसंद करते हैं?

एक जमाना था जब बच्चों के अंदर पिता का खौफ़ रहता था| और बच्चे पिता की मर्ज़ी के खिलाफ कुछ करने की हिम्मत नहीं रखते थे| बच्चों के भविष्य के लिए यह अच्छा भी था तो खराब भी| गलत न करने की डर और खौफ़ से एक तरफ बच्चे अंतर्मुखी स्वभाव के बन जाते थे तो दूसरी तरफ़ यह उसे अपने ही द्वारा उठाये गए क़दमों पर विचार करने को मजबूर करता था| बदलते दौर में यह स्थिति बदली| बच्चों के मन से पिता का खौफ़ दूर हुआ और मित्रवत व्यवहार ज्यादा होने लगा| हालाँकि समाज की बेहतरी के लिए यह स्थिति अच्छी थी लेकिन इसके बुरे परिणाम ज्यादा देखने को मिलते हैं| खुलेपन के आदि युवा धीरे-धीरे समाज, परिवार से कटकर इन्टरनेट और तकनीक की वर्चुअल दुनिया में जीना पसंद करने लगे| आज फादर्स डे पर इस बात की चर्चा इसलिए क्योंकि जिस उद्देश्य और जिस भावना के साथ 19 जून 1910 को वाशिंगटन के स्पोकेन शहर की एक महिला ने इसकी शुरुआत की थी और इसके 14 साल बाद वाशिंगटन के राष्ट्रपति ने इसे हर वर्ष मनाने की घोषणा की थी वह भावना आज नहीं दिखती| हम फेसबुक, ऑरकुट और ऐसे ही सोशल साइट्स पर दोस्तों को इलेक्ट्रोनिक कार्ड भेजकर या मोबाइल पर मेसेज भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ बैठते हैं| जबकि हकीकत तो यह है कि जितना प्यार, समर्पण, आदर इन वर्चुअल दुनिया में दिखता है, उनकी वास्तविक जिंदगी उतनी ही कड़वी, कर्कश और दुखदायी होती है| गंभीर सवाल यह है कि क्या फादर्स डे इलेक्ट्रोनिक ग्रीटिंग्स, दिल को छू लेने वाले मैसेज और एक दूसरे को विश् कर देने तक ही सीमित है?

हालाँकि यह भी सच है कि माँ-बाप के प्रति प्यार को प्रदर्शित करने के लिए कोई खास दिन की ज़रूरत नहीं होती| हमारा भारतीय समाज भी इस विषय पर दो वर्गों में बंटा हुआ है, एक वर्ग समर्थन करता है तो दूसरा विरोध, लेकिन यहाँ हम इस दिवस के औचित्य पर चर्चा करना ज़रुरी नहीं समझते| लेकिन भावनाओं के जिस बंधन में बंधकर हमने माँ-बाप के प्यार के उस निहितार्थ को समझा और उनके लिए एक खास दिन उपहार स्वरुप देने की सोची उसके इस हश्र पर चिंतित ज़रूर हैं| कहीं हम अपने सामाजिक उसूलों और मूल्यों को दरकिनार कर अस्तित्वहीन और आधारहीन दुनिया में तो नहीं जी रहे? सामाजिक आदर्शों की बलि आखिर हम क्या पाना चाहते हैं? और क्या हाइटेक होने की यही परिभाषा है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका ज़वाब ढूँढना ज़रुरी है|

Father's Day

हेल्प एज इंडिया संस्था के द्वारा एल्डर एब्यूज एंड क्राइम इन इंडिया नामक सर्वेक्षण के शनिवार को जारी रिपोर्ट पर अगर गौर किया जाए तो इसके अनुसार निचले सामाजिक आर्थिक परिवेश में 63.4 प्रतिशत मामलों में पुत्रवधुएँ वृद्धों से दुर्व्यवहार करती हैं जबकि 44 प्रतिशत मामलों में बेटे वृद्धों से दुर्व्यवहार करते हैं| यह स्थिति उच्च सामाजिक आर्थिक परिवेश में भी पायी गई| दिल्ली, मुंबई हैदराबाद, चेन्नई जैसे बड़े शहरों में वृद्धों के साथ मौखिक दुर्व्यवहार 100 प्रतिशत है| जबकि पटना जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहरों में शारीरिक दुर्व्यवहार सबसे अधिक 71 प्रतिशत है| इस सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई कि पुत्रों पर निर्भर रहने के कारण वृद्ध महिलाऐं सबसे जयादा दुर्व्यवहार की शिकार होती हैं| राष्ट्रीय स्टार पर 70 वर्ष से अधिक वृद्धों के मामलों में दुर्व्यवहार के मामले सबसे अधिक हैं|यह सर्वेक्षण देश के 9 शहरों में किया गया था| अगर यह स्थिति है तो वाकई चिंताजनक है|

दरअसल हमारे देश की सामाजिक संरचना पिछले कुछ दिनों में ऐसी बन गयी है कि हममें पश्चिमी सभ्यता के नकारात्मक चीजों को अपनाने की होड़ सी लग गई है| हम उनसे आगे निकलना तो चाहते हैं लेकिन इतनी जल्दबाजी में कि सही रास्तों की तलाश भी ज़रुरी नहीं समझते| जिसके परिणामस्वरुप हम खुदगर्ज, स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बन जाते हैं| और हमें विरासत में बुजुर्गों से मिले संस्कार भी याद नहीं रहते| आज संयुक्त परिवार की संकल्पना टूट चुकी है| एकल परिवार की सबसे बड़ी खामी यही है कि उसकी जिंदगी पत्नी और बच्चों तक ही सीमित हो जाती है ऐसे में बूढ़े माँ-बाप और रिश्तेदारों की फ़िक्र किसे है? वृद्धाश्रमों की बढती संख्या और उसमे बढते वृद्धों की संख्या इस बात की प्रमाण हैं| आखिर में एक सवाल यह कि पिता को समर्पित इस दिन क्या हम्म यह संकल्प लेंगे कि सिर्फ़ वर्चुअल ही नहीं वास्तविक जिंदगी में भी हम अपने बुजुर्गों का सम्मान करेंगे? फादर्स डे मनाने का असली मकसद तभी पूरा होगा|

गिरिजेश कुमार

4 comments:

  1. यदि कोई अपने बुजुर्गों का सम्मान नहीं करता है तो वह अपने भविष्य को कटु बनाने की तैयारी कर रहा है, हमें ही अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देने हैं.

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  2. बहुत ही सार्थक और विचारणीय लेख ..........

    देहात में एक अवधि की कहावत है....'जियत न जानैं राधा ...मरे प करैं सराधा'.......तात्पर्य यह है कियदि जीवित रहते माता-पिता का ख़याल नहीं रखा ,उनकी सेवा नहीं की तो मरने के बाद बड़ी धूमधाम से उनकी श्राद्ध करना दिखावे के सिवा कुछ नहीं |

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  3. वो भी क्‍या दि‍न होंगे जब श्रवण कुमार जी हुआ करते थे, माता-पि‍ता को तीर्थयात्राएं कराया करते थे।
    स्‍वयं में सबकुछ अनुभव कर लेने का लोभ, आत्‍मकेन्‍द्रि‍तता या कहें कि‍ स्‍वार्थीपन बढ़ गया है...इन्‍द्रि‍यसुख हावी हुए हैं, हो सकता है आदमी अपने आप को ही ढूंढ ना पाने की वजह से पहले से ज्‍यादा परेशान हो।

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  4. ऐसी ही एक ब्‍लॉगपोस्‍ट है
    http://praveenshah.blogspot.com/2011/06/blog-post_24.html

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